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Wednesday, July 20, 2011

ऐसा क्यों होता है दादी ?

माँ गढ़ती बेटों का तन-मन
न्यौछावर हो पाले बचपन
दादी मन में बस यह उलझन
बेटे, क्यों हो जाते दुश्मन.

घर-भर की फ़रियाद सुने जो
क्यों हो वह दादी फरियादी
ऐसा क्यों होता है दादी ?

बेटी-बेटों के दुःख ले ले
हंसकर साथ सभी के खेले
फिर क्यों ऐसे अजब झमेले
रहती सबसे दूर अकेले

माँ, बेटों, बहुओं के घर में
किसने यह दीवार उठा दी
ऐसा क्यों होता है दादी?

हर कोई मुझ पर झुंझलाए
मारे-पीटे आँख दिखाए
माँ, बेटों, बहुओं के झगड़े
ये बच्चा कैसे सुलझाये ?

हो जाते क्यों लाल पराये
दादी बस होते ही शादी
ऐसा क्यों होता है दादी ?

ताने सुने तोतले तेरे
प्यारे तुम और बेटे मेरे
पापा मम्मी से बसते हैं
घर में ये खुशियों के डेरे

बड़ा सयाना जाने कैसे
किसने है ऐसी शिक्षा दी
ऐसा क्यों होता है दादी ?

Sunday, July 17, 2011

उठो और जागो ,ऐ बेटों

वंदन करते देव दनुज नर एक विधाता कृति अति सुन्दर
नर-नारी के लिए दिव्य वर गर्भ पला जिसके जगदीश्वर .
वेद  पुराण उपनिषद अग-जग, महिमा जिसकी यहाँ वहां.
उठो और जागो ,ऐ बेटों , मान तो बस होती है माँ.

पिता हमारा परम पिता, शिशु बीज गर्भ में जो बोये .
माता मुदित संवार कोख में, नौ दस मास जिसे ढोए.
जन्म हमें दे, दुखी न हो शिशु, माँ जागे जब हम सोये .
ऐसी माँ के तिरस्कार के, पाप कहाँ जाते धोए.


माँ से बढ़कर स्वर्ग न कोई , माँ की कहीं नहीं उपमा.
उठो और जागो ऐ बेटों , माँ तो बस होती है माँ .

मल-मल निर्मल कर तन मन दे लाल ललाट दिठौना माँ .
धरती काँटों पर सोये, दे आँचल हमें बिछौना माँ .
लुट-लुट, घुट-घुट स्वयम हमें दे, भोजन और खिलौना माँ .
रक्त पिलाती दूध पिलाकर, हमको करे सलोना माँ.

सुर मुनि मानव दानव कहते माँ जैसी निधि और कहाँ .
उठो और जागो ऐ बेटों , माँ तो बस होती है माँ .

वृक्ष विनय

वर दो हे प्रभु! वृक्ष बनूँ  जो स्वयं न खाते फूल और फल.
हरे-भरे जग जीवन हित में, जड़ से सीमित पाऊँ जल .

जल जीवन धन जन, वन, तरु का , जल से शक्ति समर्थ रहे.
जन मन सा जड़ रहूँ न जड़ हो, जल न बूँद भर व्यर्थ बहे.

श्रान्ति मिटाकर शांति विश्व को दूं पल्लवी हवाओं से .
विविध रूप में काम नित्य आऊँ प्रभु निज शाखाओं से .

परहित में लथ-पथ हो पथ पर, तन मिट जाए कद काठी .
अंग कटें बन जाऊं प्रभु, अक्षम नारी-नर की लाठी.

भय न रंच किंचित प्रपंच का, लुट-लुट दिन-दिन रंक बनूँ .
अंक भरूँ शिशुवत, ममत्व से, जन-जन का पर्यंक बनूँ.

धरती का विष पान करूँ नित, प्राण वायु दूं दान प्रभो.
वृक्ष बनूँ , जग मानवता पर हो जाऊं बलिदान प्रभो.  

Sunday, July 10, 2011

रत्नावली

विश्व वंचित ही रहता महाग्रंथ से
               कामिनी यदि नहीं होती रत्नावली.
लाल हुलसी का तुलसी न बनता कभी
               भामिनी यदि नहीं होती रत्नावली .
संत के कर्म के पंथ पर रहता तम
               दामिनी यदि नहीं होती रत्नावली .
पति को सदगति न मिलती कभी स्वप्न में,
               स्वामिनी यदि नहीं होती रत्नावली.

विद्वता काल के गाल जाती, अगर
               देती यौवन न बलिदान , रत्नावली.
काम का केतु ग्रास हेतु को लेता सच
              करती शर यदि न संधान रत्नावली.
तन है नश्वर न स्वीकारते वर्ण स्वर
              सत्य देती न साद ज्ञान रत्नावली.
वर सी विदुषी श्री तुलसी की दिग्दर्शिका
              संत तुलसी की पहचान रत्नावली .

वंदना योग्य युग-युग सुकृति  मानसी
              विश्व कवि का प्रथम छंद रत्नावली.
वन सुमन से खिले रह निराहार भी
              दिव्य आहार नवकंद रत्नावली .
सत्य से ही परे रहते तुलसी अरे
               संत जीवन का आनंद रत्नावली .
यह सुधा रस पिलाते न तुलसी सुकवि
               मंजरी रस की मकरंद रत्नावली.

Tuesday, July 5, 2011

// व्यक्ति से व्यक्तित्व के कृतित्व पथ पर //

वर्ष, माह, दिवस, रात, संध्या, प्रात 
गतिमान बीतते गए .
व्यक्ति से व्यक्तित्व कोष भरते गए और रीतते गए .
कर्मपथ पर कर्तव्यरत कभी हारते कभी जीतते गए .
जीत जाना दंभ है .
हारना जय का सुदृढ़ स्तम्भ है .
व्यक्ति ! जीतना चाहता है , मात्र जीतना ,
त्यागना नहीं चाहता दंभ ताल.
सत्य ! सत्य है -
सुख में सुख नहीं , दुःख ही सच्चा सुख है,
दुःख- सुख के संग खेलता धुप- छाँव से खेल ,
कभी रुक- रुक , कभी छुक-छुक बढ़ती  रहती जीवन रेल ,
मरता- जीता रहा नित्य ,
सृजित भी कब कर सका साहित्य  ?
मन जीवन की विकृति  को मिल गयी कृति छवि ,
परिचित- अपरिचित कहने लगे कवि ,
क्यों विचारें ? कवि होना भी कब होता सरल ,
कवि वह जो परहित में हँस कर पान कर ले गरल ,
कवि वह जिसे ज्ञात हो शब्दार्थ ,
जो रचे, उसे कर भी सके चरितार्थ ,
स्वार्थ से परे कर सके परमार्थ ,
वही कवि की छवि यथार्थ .
विकास पथ पर पर चलते, जलाते, स्वयं को छलते,
गिरते-संभलते, मान- अपमान के घूँट निगलते,
ममत्व से तत्त्व के महत्व ,
कभी सत्व, कभी स्वत्व ,
चिंतन में वेदना के भाव ,
जल के ठहराव पर उतार कागज़ की नाव -
चाव से वीर, ओज , श्रृंगार,
रस, छंद, अलंकार भर नहीं पाया ,
वही रचता गया जो रच पाया ,
रचयिता व्यक्ति नहीं शक्ति होती है ,
जो काव्यगत विशेषताएं पिरोती है-
अन्यथा कैसे रच सके कोई नारी या पुरुष 
इतना रम्य ,दिव्य, अकल्पनीय रसाज इन्द्रधनुष ,
कि सृजन उपास्य हो ,
प्रभु से प्रार्थना है-
विकास पथ पर अब न नैराश्य हो ,
सृजन में प्रधान भाव दास्य हो ,
मन में न टिक सके दंभ .
सृजन का यही हो, काव्यात्मक शुभारम्भ .
   

Sunday, July 3, 2011

पितृ देवो भव

वाणी, कर्म, मन से वन्दनीय विश्व पितृ दिवस ,
फादर्स डे का विश्वव्यापी सुयश ,
अनस्तित्व का आखेट हो न हो विवश ,
तभी तो सार्थक हो सकेगा -
विश्व का फादर्स डे, भारतीय पितृ दिवस /
कब! पुनर्नवा पूरित होगी , श्रवण सेवा परम्परा ?
कब ! जनेगी ऐसे पुत्र - पुत्रियाँ यह रत्नधरा ?
कब पा सकेगा लालन- पालन ?
वह श्री परशुरामी पित्राज्ञानुपालन ?
कब यथार्थ में होगा भीष्म व्रत परिचालन ,
कब स्वार्थ में लिप्त वर्तमान -
करेगा पितृ पदातीत पर वलिदान, सेवा, निर्वहन 
कब स्वयं भी पिता हो पायेंगे जनक,
अभिशप्त कब तक शीश पर ढोयेंगे, पिता होने का भार  ?
कब होगा पितृ उद्धार   ?
की वर्ष - प्रतिवर्ष हो  सोल्लास , पितृ दिवस !
अस्तित्व के लिए कहीं पिता न हो विवश ,
पिता भी करे दायित्व निर्वाह ,
पिता की स्नेह सरिता का प्रवाह -
कभी अवरुद्ध न हो  ,
कोई भले शत- प्रतिशत शुद्ध न हो ,
किन्तु यशोधरा तज पुनः  कोई बुद्ध न हो ,
संतान पिता को , पिता संतान रखे संवार ,
पुत्र - पुत्रियाँ कहें पुकार बार- बार ,
जीवन ! नित्य अभिनव  !
पितृ देवो भव ! पितृ देवो भव  !