आप अपने से जब हों पराये ।
साथ साया भी पथ पर न आये ।
पंथ पर पाँव थक जावें तन चूर हो
स्वप्न संसार नयनों से जब दूर हो
सुख में रहते हुए तृप्ति की प्यास में
उम्र की ओढ़नी क्षीण बेनूर हो
राह पर साथ चलते हुए चुप रहे
कोई आवाज दे मत बुलाये ।
प्रात से रात नूतन शुभारम्भ हो
चाहे जितना सुदृढ़ धैर्य स्तम्भ हो
आ ही जाए दबे पाँव नीरस हवा
बाग रक्षक के मानस में जब दंभ हो
चाँदनी में अगर नित्य तन मन जले
और धुवां भी कहीं से न आये ।।
लोभ मद काम हो क्रोध का संचयन
रात दिन व्यग्र रहने लगें यदि नयन
शान्ति की भ्रान्ति में कान्ति लुटती रही
स्वप्न में एक पल भी न भाए शयन
कोई लोरी न गाकर सुलाए ।
आप से जब गले लग न भाई मिले
सामने सारी दुनियाँ पराई मिले
जान लेने लगें रिश्ते नाते अगर
आस क्या प्यास पग पग सतायी मिले ।
पाप का पुण्य का हर गणित दृष्टि का
लाख जोड़े कोई या घटाए ।।।
वृन्दावन ! आसवन भक्ति का , नवरस नस-नस मनभावन / वर दें आप, ताप मिट जाएँ , रस बरसे पग-पग पावन / व्यंजन-स्वर परसें मनभावन , नव रस का बरसे सावन / वंदन! वचन सुधा रस चाहे , प्रिय आओ इस वृन्दावन /
Sunday, April 5, 2015
आप अपने से
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