वर दो हे प्रभु! वृक्ष बनूँ जो स्वयं न खाते फूल और फल.
हरे-भरे जग जीवन हित में, जड़ से सीमित पाऊँ जल .
जल जीवन धन जन, वन, तरु का , जल से शक्ति समर्थ रहे.
जन मन सा जड़ रहूँ न जड़ हो, जल न बूँद भर व्यर्थ बहे.
श्रान्ति मिटाकर शांति विश्व को दूं पल्लवी हवाओं से .
विविध रूप में काम नित्य आऊँ प्रभु निज शाखाओं से .
परहित में लथ-पथ हो पथ पर, तन मिट जाए कद काठी .
अंग कटें बन जाऊं प्रभु, अक्षम नारी-नर की लाठी.
भय न रंच किंचित प्रपंच का, लुट-लुट दिन-दिन रंक बनूँ .
अंक भरूँ शिशुवत, ममत्व से, जन-जन का पर्यंक बनूँ.
धरती का विष पान करूँ नित, प्राण वायु दूं दान प्रभो.
वृक्ष बनूँ , जग मानवता पर हो जाऊं बलिदान प्रभो.
2 comments:
आपका ब्लॉग पसंद आया....बहुत बधाई आपको
प्रवीण कुमार दुबे जी
ब्लॉग पसंद आया , आभारी हूँ , धन्यवाद
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