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Tuesday, June 28, 2011

व्यर्थ न हो जल की एक बूँद

व्यर्थ न होवे , जल की एक भी  बूँद !
यदि अब भी रहे स्थितिप्रज्ञ , धारण किये मौन ,
कल ! जल , देगा भी कौन ?
वृक्ष विलुप्त हो रहे हैं ,
जल श्रोत सुप्त हो रहे हैं ,
पहले लोग घड़े में जल लाते थे ,
पीते, पिलाते, अघाते थे ,
जल की एक बूँद भी, अकारण
मिट्टी में नहीं मिलाते थे /
बड़े- बूढ़े , टोकते, रोकते ,
जल नहीं, जीवन है , व्यर्थ न बहे ,
अब वर्तमान में कौन कहे ?
जल जीवन-वृक्ष ! जल जीवन धन !
जल का तल ! खो रहा धरातल /

नहीं रहे पनघट - खो गए रहट ,
निष्फल, निर्जल, ये इंडिया मार्का नल ,
मल की कहानी है /
नल का नहीं, नर का मरा पानी है /
अब सरोवरों के निकट पक्षी चहचहाते नहीं,
हरे पेड़- पौधे जल के अभाव में लहलहाते नहीं ,
अब कहाँ राहों में वृक्ष से बंधे वे नीड़,
अब तो भवनों का विस्तार, वाहनों की भीड़ ,
वृक्ष ! जल ! संरक्षण ही हल है समस्या का ,
अन्यथा , कोई अर्थ कहाँ, त्याग और तपस्या का ?
वृक्ष काटना विवशता हो तो -
एक के बदले चार रोपें ,
वन्दे मातरम , गाने वाले-
वसुंधरा वक्ष में छुरा न घोपें ,
वरना जल शून्य !जल- जल , जल 
जीवन हो ही जाएगा निष्फल ,
आज नहीं तो कल ,
अस्तु, व्यर्थ न होवे एक बूँद भी जल /  

Monday, June 27, 2011

{ सुनो सत्यवान सुनो }

  सुनो सत्यवान सुनो !
पत्नीवृती पंथ तुम भी चुनो ,
वर के रूप में इस सावित्री के माता- पिता ने तुम्हें चुना ,
क्षमता से बढ़- चढ़ दान- उपहार दिया कई गुना ,
पर अपनी देहरी पर तुमने अर्थ-लिप्सा का ऐसा जाल बुना ,
इस स्त्री ने लज्जा से सदैव अपना सर धुना /
कब पता था -
लकड़ी काटकर पलता सत्यवान का प्रतीक इन्सान ,
यथार्थ में है इतना हैवान ,
अपनी ही पत्नी का गला काटने का अभ्यासी है ,
धर्म के माता- पिता की मनोवृत्ति प्यासी है ,
बहू घर की लक्ष्मी नहीं-
पुत्र सत्यवान के चरणों की दासी है ,
सत्यवान ! नश्वर धन तुम्हारा काबा- काशी है /

किसे पता था , तुम्हारे इतने कुटीर धंधे हैं ,
आँखें होते हुए केवल तुम ही नहीं -
तुम्हारे माता- पिता भी अंधे हैं /
यमराज से प्राण लाने की भी वह अभिलाषा ,
संदर्भित कर गयी नवीन परिभाषा ,
तुम, सावित्री के प्राण प्यासे निकले ,
सावित्री ने ग्लानी- संत्रास के घूँट निगले ,
होली की भाँति सावित्री जलाई ,
किसने पतिवृता पत्नी दहन की रीति चलाई ?

अब विवश सावित्री भी आन पर आयी ,
चुकाने लगी पित्र - ऋण की पायी - पायी,
न जाने कब तक फैलती तुम्हारी लोलुपता की बेल,
तुम्हारे लिए यदि सावित्री है खेल,
तो सच्चाई सुनो, फिर वन्दीग्रह में सिर धुनों,
सावित्री यमराज से -
सत्यवान के प्राण ला भी सकती है ,
और अकारण प्राणों पर संकट हो ,
पति सत्यवान के मन में छल- कपट हो ,
तो पति के प्राणों पर संकट धा भी सकती है /

सावित्री , न कल भयभीत थी, न आज भयभीत है ,
सत्यवान रहो, तो सावित्री का स्वाभिमान ,
अन्यथा करोगे विषपान ,
यही सावित्री का वर्त्तमान,भविष्य और अतीत है ,
यह पुरुषत्व की नहीं , नारीत्व की जीत है /
      

{ सुनो दुष्यंत सुनो }

वर्चस्व के सिंहासन पर आरूढ़ स्वार्थी दुष्यंत ,
शाकुंतल शील पर तुषार वार कर लील गए वसंत ?
आज सत्वधारी संत हो गए /
साथी दिग- दिगंत सो गए /
स्मरण करो वह सदाचरण -
जब वन सौंदर्य से दूषित हुआ तुम्हारा अंतःकरण  /
जब शाकुंतल यौवन के वन में लोलुप भ्रमर से मंडराए तुम ,
माना कुछ दोष मेरा भी था, क्यों प्रथम दृष्टि में भाये तुम ?

आँखें पहचान न सकीं ,दुष्यंत /
भेद जान न सकीं , दुष्यंत /
सामर्थ्य में दोष नहीं होते दुष्यंत ,
वनमानुषों के लिए राजकोष नहीं खोते दुष्यंत,
तुमने तृप्ति तट तक जिसे लूटा ,
आज उसी शीश पर यह पहाड़ टूटा ,
सुनो दुष्यंत, सुनो , निरापद पथ चुनो ,
शकुन्तला ! नष्ट नहीं करेगी अपना गर्भ ,
परन्तु शकुन्तला की विषम वेदना के दर्भ -
तुम को देते रहेंगे दंश ,
मेरे अंश से ही चलेगा तुम्हारा वंश ,

नृशंश, मानसरोवर से राजहंस के सामान-
मुक्ता चुगने वाले कपटी काग,
शकुन्तला की व्यथा की आग ,
जला कर राख कर देगी तेरा वैभव ,
शकुन्तला संवारेगी गर्भस्थ शिशु का शैशव ,
पाल- पोष कर बड़ा कर -
एक दिन तेरे वर्चस्व पथ पर खड़ा कर -
सगर्व पूछेगी ! बोल दुष्यंत ,
कैसे चाहता है वर्चस्व का अंत ?

जिस दिन शकुन्तला होगी इतनी शक्तिमान ,
पल भर नहीं सहेगी नारीत्व का अपमान ,
और तब संभवतः कोई अबला ,
नहीं बनेगी दूसरी शकुन्तला ! !  

Wednesday, June 22, 2011

वर दे माँ

वर दे , वर दे , वर दे माँ / वर दे , वर दे, वर दे माँ
सुयश संस्कृति का रसमय हो, गीत गान के स्वर दे माँ
वर दे , वर दे, वर दे माँ

नरता का नव छंद न रूठे ,
सुमनों से मकरंद न रूठे,
हिन्दी , बिंदी रहे भाल की
कविता का आनन्द न रूठे 
वंदन / यह आरती भारती विश्व भुवन में भर दे माँ /
 वर दे , वर दे, वर दे माँ /

माँ हम लाख हों भूखे- नंगे ,
हिम्मत हर न सकेंगे दंगे ,
देश दीप की लौ में स्वाहा -
हो जायेंगे , हम हैं पतंगे
देश प्रेम की हद सरहद पर न्यौछावर हों, सर दे माँ /
वर दे , वर दे, वर दे माँ /

कैसी भी विष भरी अगन हो ,
वन्दे मातरम एक लगन हो ,
विजयी विश्व तिरंगा चूमे-
कितना भी विस्तीर्ण गगन हो
जुड़ें सभी से, उड़ें झूमकर, हमको भी वह पर दे माँ /
 वर दे , वर दे, वर दे माँ /

Monday, June 20, 2011

वन्दन हिन्दी

वन्दन हिन्दी ,वन्दन हिन्दी  , जय , जय, जय वंदन  हिन्दी ,
विश्व सदन में , देवनागरी लिपि , अनमोल रतन  हिन्दी .
अद्वितीय निधि अक्षरमाला ,
स्वर व्यंजन अमृतमय प्याला,
तुलसी, सूर, कबीर , बिहारी ,
आराधक रसखान, निराला ,
अलंकार, रस, भाव संजोये तेरे स्वर-व्यंजन हिन्दी
वन्दन हिन्दी, वन्दन हिन्दी   , तेरा हे अभिनन्दन हिन्दी ,.

यश गावें दिनकर,रत्नाकर,
कवि  भरते गागर में सागर ,
जगनिक, घनानन्द , केशव से ,
भूषण,प्रिय हरिऔध गुणाकर,
भारतेन्दु की शक्ति , महादेवी , प्रसाद , चन्दन हिन्दी ,   
वन्दन हिन्दी, वन्दन हिन्दी , तेरा हे अभिनन्दन हिन्दी .

वन्दन जय हे भारत भाषा ,
जन गण मन नवजीवन आशा ,
प्रिय व्याकरण जागरण की लौ ,
यश की नित अभिनव परिभाषा ,
जन्म- जन्म मन वचन कर्म से नित्य रहे बंधन हिन्दी  
   
वन्दन हिन्दी, वन्दन हिन्दी , तेरा हे अभिनन्दन हिन्दी .

दूर रहकर भी जीने लगे

वर्ष भी दिन- महीने लगे ,
दूर रहकर भी जीने लगे /

जख्म जो वक्त की वादियों ने दिए ,
कितने जुल्म-ओ-सितम आँधियों ने किये.
पार फिर भी शफीने लगे,
दूर रहकर भी जीने लगे /

हस्तियाँ कितनी हैं बावफा दर्द की ,
मस्तियाँ बाखुदा इक दवा दर्द की.
अश्क -ए   -मय हम तो पीने लगे,
 दूर रहकर भी जीने लगे /

सायेदारी न हो तो शज़र की खता ,
बेकरारी न हो तो नज़र की खता ,
गैरों को हम कमीने लगे,
दूर रहकर भी जीने लगे /

ये तसल्ली तो है ,प्यार सायों में है ,
प्यार की दौलतें बस परायों में है ,
दिल को मौजूं करीने लगे ,
दूर रहकर भी जीने लगे /

कौन कहता है सस्ती बड़ी दिल्लगी ,
जिन्दगी भर सुलगती रहे जिन्दगी ,
जख्म फिर अपने सीने लगे ,
दूर रहकर भी जीने लगे /

Sunday, June 19, 2011

तस्वीर अब पूरी लगी

वायदे करते गए दिन,
कुछ सुहाया कब तेरे बिन,
जब सजी संध्या की डोली ,
रच सितारों की रंगोली ,
रातरानी जैसी सुन्दर ,
देखने में और भोली ,
बाँझ जैसी सांझ पहली बार सिंदूरी लगी .
रच रहा वर्षों से जो तस्वीर, अब पूरी लगी .

अब भी वे यादें जवाँ, जब ताकते थे दूर थे ,
प्रीती की हर रीति खट्टे सच बड़े अंगूर थे ,
लाख कोशिश की गिरे कुछ ऐसे सपने टूटकर ,
दूरियां ये , जाने कैसे प्यार के दस्तूर थे ,
नूर के हर अक्स को जाने लगी किसकी नज़र 
आज जब देखा, नज़र हर बार अंगूरी लगी .
 रच रहा वर्षों से जो तस्वीर, अब पूरी लगी

अब भी बचपन का वही बीता ज़माना याद है ,
प्यार अपनेपन का खुलकर खिलखिलाना याद है ,
मुस्कुराना,गुनगुनाना , फिर लजाना आप ही ,
सांस की  ले पर वो सरगम गुनगुनाना याद है ,
प्यार के उन सिलसिलों में दूरियों की दास्ताँ ,
मेरी मजबूरी कभी सच तेरी मजबूरी लगी .
रच रहा वर्षों से जो तस्वीर, अब पूरी लगी


कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?

वर्णों में रस की बरसातें ,
दिन और रात तुम्हारी बातें,
कैसे कह दूं इन यादों में ,खुशियों का संसार नहीं है .
दूर हो जितना, पास हो उतना ,कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?
कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?

आँखों में सजते हैं लाखों अब भी सुन्दर स्वप्न सजीले,
सपनों में रसखान हुए सच , सागर तेरे होंठ रसीले ,
आकर्षण  रस भाव सुवर्षण करते तेरे नयन हठीले ,
कैसे भूले, भूले से भी , यदि कोई यह अमृत पीले ,
बूँद-बूँद में भरा सृजन रस, कैसे कह दूं सार नहीं है ? 
दूर हो जितना, पास हो उतना ,कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?

रूप है ऐसा देख फ़रिश्ते , क्यों अपना दिल थाम न लेंगे ,
चलाती-फिरती मधुशाला क्यों प्यासे भी पी जाम न लेंगे ?
साँसें दहतीं, कहती रहतीं अब संयम से काम न लेंगे ,
लुट जायेंगे इस मदिरालय पर, जीने का नाम न लेंगे
मिटने का यह दीवानापन , जीत प्यार की हार नहीं है .
दूर हो जितना, पास हो उतना ,कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?

कंगन की खन-खन लूटे मन, पागल करती पायल छम-छम ,
कुंडल डोल , कपोल चूमते , रस का गंगा-यमुनी संगम , 
थम-थम कर साँसों का चलना , टूट रहा है जैसे संयम ,
यही समर्पण कम क्या , सपनों में हैं एक न बिछुड़े तुम-हम .
जब सर्वस्व तुम्हारा , कैसे कह दूं , यह अधिकार नहीं है .
 दूर हो जितना, पास हो उतना ,कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?
कैसे कह दूं प्यार नहीं है ?