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Thursday, December 1, 2011

हम तुम भी ---

वैरागी ! मन से बंजारे ,
आसमान से  टूटे तारे  ,
कह न सकें भी सूने ऐसे  -
हुए , भरे भण्डार हमारे  ,
जीना क्या घर के मधुवन के शूलों जैसे हैं !?
बहती सरिता की धारा के कूलों  जैसे  हैं   !!
ऐसी रच ली राम कहानी ,
चार दिनों बस चली जवानी ,
सोन चिरैया उड़ गयी फुर से -
आन हो गयी पानी-पानी ,
उड़े , हाथ आ , तोते ! टूटे  झूलों   जैसे   हैं  !!
ये पश्चिमी हवा के झोंके ,
उड़ा ले गए बसन घरों के ,
नंगेपन की अंधी आंधी -
सुख लूटे सहमी लहरों के ,
तूफानों से   तूलों में   मस्तूलों    जैसे    हैं   !!
सपने लुटते चोरी -चोरी ,
ऐसी बँधी प्रीति की डोरी ,
नींद हराम हो गयी फिर भी -
रात , सुनाती जाए  लोरी  ,
हम तुम भी  डाली  से बिछड़े  फूलों जैसे हैं   !!
जीना क्या घर के मधुवन के  शूलों जैसे हैं  !!


2 comments:

अनुपमा पाठक said...

'हम तुम भी डाली से बिछड़े फूलों जैसे हैं!!'
गहरी संवेदना जुड़ी है इस पंक्ति से!

S.N SHUKLA said...

सुन्दर स्रजन, ख़ूबसूरत भाव, शुभकामनाएं
रचना बहुत सुन्दर है, बधाई.