विष्णु कैसे क्षीरसागर बीच तुम सोते रहे ?
विष बना गंगा के जल को पाप हम धोते रहे।
धवल जल को मल बनाते और करते आचमन ।
हम भगीरथ ऐसे गंगा में भी जौ बोते रहे ।।
कैसे अत्याचार,भगिनी पर सहे,माँ लक्ष्मी ,
दो नयन गंगा के बहते रात दिन रोते रहे ।
दूर मैलापन हो धन सब स्वच्छता अभियान का,
हम हजम करते गए , नारे जवाँ होते रहे ।
भाँवरों में , गीत यश के , काँवरो में जो बसे ,
मैली माँ गंगा वो ,उड़ते हाथ से तोते रहे ।।
गंगा माँ , पर लाज माँ की भी बचा पाए कहाँ ?
माँ के हत्यारे हैं , न्यारे , हम , समय खोते रहे।।
वृन्दावन ! आसवन भक्ति का , नवरस नस-नस मनभावन / वर दें आप, ताप मिट जाएँ , रस बरसे पग-पग पावन / व्यंजन-स्वर परसें मनभावन , नव रस का बरसे सावन / वंदन! वचन सुधा रस चाहे , प्रिय आओ इस वृन्दावन /
Thursday, June 13, 2013
विष्णु ! तुम्हारी गन्दी गंगा
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