वर्ष, माह, दिवस, रात, संध्या, प्रात
गतिमान बीतते गए .
व्यक्ति से व्यक्तित्व कोष भरते गए और रीतते गए .
कर्मपथ पर कर्तव्यरत कभी हारते कभी जीतते गए .
जीत जाना दंभ है .
हारना जय का सुदृढ़ स्तम्भ है .
व्यक्ति ! जीतना चाहता है , मात्र जीतना ,
त्यागना नहीं चाहता दंभ ताल.
सत्य ! सत्य है -
सुख में सुख नहीं , दुःख ही सच्चा सुख है,
दुःख- सुख के संग खेलता धुप- छाँव से खेल ,
कभी रुक- रुक , कभी छुक-छुक बढ़ती रहती जीवन रेल ,
मरता- जीता रहा नित्य ,
सृजित भी कब कर सका साहित्य ?
मन जीवन की विकृति को मिल गयी कृति छवि ,
परिचित- अपरिचित कहने लगे कवि ,
क्यों विचारें ? कवि होना भी कब होता सरल ,
कवि वह जो परहित में हँस कर पान कर ले गरल ,
कवि वह जिसे ज्ञात हो शब्दार्थ ,
जो रचे, उसे कर भी सके चरितार्थ ,
स्वार्थ से परे कर सके परमार्थ ,
वही कवि की छवि यथार्थ .
विकास पथ पर पर चलते, जलाते, स्वयं को छलते,
गिरते-संभलते, मान- अपमान के घूँट निगलते,
ममत्व से तत्त्व के महत्व ,
कभी सत्व, कभी स्वत्व ,
चिंतन में वेदना के भाव ,
जल के ठहराव पर उतार कागज़ की नाव -
चाव से वीर, ओज , श्रृंगार,
रस, छंद, अलंकार भर नहीं पाया ,
वही रचता गया जो रच पाया ,
रचयिता व्यक्ति नहीं शक्ति होती है ,
जो काव्यगत विशेषताएं पिरोती है-
अन्यथा कैसे रच सके कोई नारी या पुरुष
इतना रम्य ,दिव्य, अकल्पनीय रसाज इन्द्रधनुष ,
कि सृजन उपास्य हो ,
प्रभु से प्रार्थना है-
विकास पथ पर अब न नैराश्य हो ,
सृजन में प्रधान भाव दास्य हो ,
मन में न टिक सके दंभ .
सृजन का यही हो, काव्यात्मक शुभारम्भ .
2 comments:
प्रभु से प्रार्थना है-
विकास पथ पर अब न नैराश्य हो ,
सृजन में प्रधान भाव दास्य हो ,
मन में न टिक सके दंभ .
सृजन का यही हो, काव्यात्मक शुभारम्भ .
बहुत सुंदर पावन भाव.....
मोनिका जी
आपके उदारमना स्नेह और समर्थन का आभारी हूँ ,धन्यवाद
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