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Monday, June 27, 2011

{ सुनो सत्यवान सुनो }

  सुनो सत्यवान सुनो !
पत्नीवृती पंथ तुम भी चुनो ,
वर के रूप में इस सावित्री के माता- पिता ने तुम्हें चुना ,
क्षमता से बढ़- चढ़ दान- उपहार दिया कई गुना ,
पर अपनी देहरी पर तुमने अर्थ-लिप्सा का ऐसा जाल बुना ,
इस स्त्री ने लज्जा से सदैव अपना सर धुना /
कब पता था -
लकड़ी काटकर पलता सत्यवान का प्रतीक इन्सान ,
यथार्थ में है इतना हैवान ,
अपनी ही पत्नी का गला काटने का अभ्यासी है ,
धर्म के माता- पिता की मनोवृत्ति प्यासी है ,
बहू घर की लक्ष्मी नहीं-
पुत्र सत्यवान के चरणों की दासी है ,
सत्यवान ! नश्वर धन तुम्हारा काबा- काशी है /

किसे पता था , तुम्हारे इतने कुटीर धंधे हैं ,
आँखें होते हुए केवल तुम ही नहीं -
तुम्हारे माता- पिता भी अंधे हैं /
यमराज से प्राण लाने की भी वह अभिलाषा ,
संदर्भित कर गयी नवीन परिभाषा ,
तुम, सावित्री के प्राण प्यासे निकले ,
सावित्री ने ग्लानी- संत्रास के घूँट निगले ,
होली की भाँति सावित्री जलाई ,
किसने पतिवृता पत्नी दहन की रीति चलाई ?

अब विवश सावित्री भी आन पर आयी ,
चुकाने लगी पित्र - ऋण की पायी - पायी,
न जाने कब तक फैलती तुम्हारी लोलुपता की बेल,
तुम्हारे लिए यदि सावित्री है खेल,
तो सच्चाई सुनो, फिर वन्दीग्रह में सिर धुनों,
सावित्री यमराज से -
सत्यवान के प्राण ला भी सकती है ,
और अकारण प्राणों पर संकट हो ,
पति सत्यवान के मन में छल- कपट हो ,
तो पति के प्राणों पर संकट धा भी सकती है /

सावित्री , न कल भयभीत थी, न आज भयभीत है ,
सत्यवान रहो, तो सावित्री का स्वाभिमान ,
अन्यथा करोगे विषपान ,
यही सावित्री का वर्त्तमान,भविष्य और अतीत है ,
यह पुरुषत्व की नहीं , नारीत्व की जीत है /
      

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