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Monday, June 27, 2011

{ सुनो दुष्यंत सुनो }

वर्चस्व के सिंहासन पर आरूढ़ स्वार्थी दुष्यंत ,
शाकुंतल शील पर तुषार वार कर लील गए वसंत ?
आज सत्वधारी संत हो गए /
साथी दिग- दिगंत सो गए /
स्मरण करो वह सदाचरण -
जब वन सौंदर्य से दूषित हुआ तुम्हारा अंतःकरण  /
जब शाकुंतल यौवन के वन में लोलुप भ्रमर से मंडराए तुम ,
माना कुछ दोष मेरा भी था, क्यों प्रथम दृष्टि में भाये तुम ?

आँखें पहचान न सकीं ,दुष्यंत /
भेद जान न सकीं , दुष्यंत /
सामर्थ्य में दोष नहीं होते दुष्यंत ,
वनमानुषों के लिए राजकोष नहीं खोते दुष्यंत,
तुमने तृप्ति तट तक जिसे लूटा ,
आज उसी शीश पर यह पहाड़ टूटा ,
सुनो दुष्यंत, सुनो , निरापद पथ चुनो ,
शकुन्तला ! नष्ट नहीं करेगी अपना गर्भ ,
परन्तु शकुन्तला की विषम वेदना के दर्भ -
तुम को देते रहेंगे दंश ,
मेरे अंश से ही चलेगा तुम्हारा वंश ,

नृशंश, मानसरोवर से राजहंस के सामान-
मुक्ता चुगने वाले कपटी काग,
शकुन्तला की व्यथा की आग ,
जला कर राख कर देगी तेरा वैभव ,
शकुन्तला संवारेगी गर्भस्थ शिशु का शैशव ,
पाल- पोष कर बड़ा कर -
एक दिन तेरे वर्चस्व पथ पर खड़ा कर -
सगर्व पूछेगी ! बोल दुष्यंत ,
कैसे चाहता है वर्चस्व का अंत ?

जिस दिन शकुन्तला होगी इतनी शक्तिमान ,
पल भर नहीं सहेगी नारीत्व का अपमान ,
और तब संभवतः कोई अबला ,
नहीं बनेगी दूसरी शकुन्तला ! !  

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