विरह वर्णन ! वह भी श्रीराधाश्याम का ;शब्दसृजन की सामर्थ्य से परे , जो कुछ रचा गया कोई , सत चित आनंदमय हो ,इसी लालसा से विरही मन की व्यथा का गान ,भक्ति गीत ++++++++++++++++=====
वंशी , न , वंशीवाला मधुवन हो कैसे फूले !
घनश्याम जैसा काला पी ले , लहू भी तू ले !
रसिया है भोर सूनी डसती है साँझ ऐसे
साँसों की वो सुरीली सरगम है बाँझ जैसे
सुख है विरह का आला दुःख सारे लंगड़े- लूले !
वंशी न वन्शीवाला =====================
भावे न फूटी आँखों हरियाली तेरा सावन
वृज सूना ,सुनें कैसे वंशी की धुन् लुभावन?
छलके नयन का प्याला फंदे , गले के, झूले !
वंशी न वंशीवाला =====================
हे खिलने वाले वन सुन कटती हैं कैसे रातें
हर रात अमावस है, पावस सी हैं बरसातें
गिर जाए जैसे पाला तन , चाँदनीजो छू ले !
वंशी न वंशीवाला ===================
नटखट है सूना गोकुल यमुना के तट वो घाटी
ले सौंह न मारूंगी, मन भर, ले खा ले माटी
मन प्राण जलते वृज के खिलती हैं कलियाँ
बरसाना वृन्दावन की सूनी हैं गलियाँ ऐसे
गिरिवर उठानेवाला , कब आये भटके -भूले ?
वंशी न वंशीवाला मधुवन हो कैसे फूले ?
श्री राधे श्री राधे राधे
राधेश्याम हरे
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मैया ! भी, टेरे लाला ! मन मानी , आ बहू ले !
वंशी न वंशीवाला ==================मन प्राण जलते वृज के खिलती हैं कलियाँ
बरसाना वृन्दावन की सूनी हैं गलियाँ ऐसे
गिरिवर उठानेवाला , कब आये भटके -भूले ?
वंशी न वंशीवाला मधुवन हो कैसे फूले ?
श्री राधे श्री राधे राधे
राधेश्याम हरे
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2 comments:
खूबसूरत प्रस्तुति ||
बधाई ||
विरह वेदना का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।
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