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Sunday, October 9, 2011

वंशी न वंशीवाला

विरह वर्णन ! वह भी श्रीराधाश्याम का ;शब्दसृजन की सामर्थ्य से परे , जो कुछ रचा गया कोई  , सत चित आनंदमय हो ,इसी लालसा से विरही मन की व्यथा का गान ,भक्ति गीत ++++++++++++++++=====

वंशी  , न  , वंशीवाला           मधुवन  हो कैसे  फूले  !
घनश्याम जैसा काला           पी ले   , लहू भी  तू  ले !        
   रसिया है भोर सूनी  डसती है  साँझ  ऐसे 
   साँसों की वो सुरीली सरगम है बाँझ जैसे
सुख है विरह का आला          दुःख सारे लंगड़े-  लूले !
वंशी न वन्शीवाला =====================
   भावे न फूटी आँखों हरियाली तेरा सावन 
 वृज सूना ,सुनें कैसे वंशी की धुन् लुभावन?
छलके नयन का प्याला         फंदे  , गले  के, झूले !
वंशी न वंशीवाला =====================

हे खिलने वाले वन सुन  कटती हैं कैसे रातें
 हर रात  अमावस है,  पावस सी हैं बरसातें
 गिर जाए  जैसे  पाला       तन , चाँदनीजो छू ले !
वंशी न वंशीवाला ===================
नटखट है सूना गोकुल यमुना के तट वो घाटी 
  ले सौंह  न मारूंगी, मन भर, ले खा ले  माटी 
  मैया ! भी, टेरे लाला ! मन मानी , आ   बहू ले  !
  वंशी न वंशीवाला ==================
  मन प्राण जलते वृज के खिलती हैं कलियाँ
   बरसाना वृन्दावन की सूनी हैं गलियाँ ऐसे
   गिरिवर उठानेवाला ,  कब आये भटके -भूले ?
   वंशी न वंशीवाला   मधुवन  हो  कैसे   फूले  ?

                  श्री राधे श्री राधे राधे
                      राधेश्याम हरे
                   ++++++++++++


2 comments:

रविकर said...

खूबसूरत प्रस्तुति ||
बधाई ||

vandana gupta said...

विरह वेदना का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।