ओव्यर्थ रहे करवटें बदलते नींद न आयी रात भर ।
कसम तुम्हारी रही सताती फिर तन्हाई रात भर ।
अपलक रहीं देखती आँखें दरवाजे से दूर कहीं
आसपासहीकहींसिसकतीदुल्हनलजाईरातभर।
ऐसीआदत यादों से ही लिपटलिपटकर सोनेकी
नींदों की ही उम्मीदों में सेज सजायी रात भर ।
मिले कहाँ कब दूर हुए हम सपने कैसे चूर हुए
सूर बने अनमने रहे रचते कविताई रात भर ।
फिरमीठीझिडकियांसुनाकरबंदखिड़कियाँ खटकाती
दीवारों से लिपट लिपट रोयी परछाईं रात भर ।
रंग भंग कर जाए पागल अपनी मस्ती में छूकर
अंग अंग से जंग करे भरती अंगड़ाई रात भर ।
कहते लोग अकेले रहते रहते कहाँ अकेले हम
तेरी यादें आ आ कर करतीं पहुनाई रात भर ।
मन के वृन्दावन में नयनों के सूने यमुना तट पर
रस नागर ने गागर भर बाँसुरी बजाई रात भर ।
वृन्दावन ! आसवन भक्ति का , नवरस नस-नस मनभावन / वर दें आप, ताप मिट जाएँ , रस बरसे पग-पग पावन / व्यंजन-स्वर परसें मनभावन , नव रस का बरसे सावन / वंदन! वचन सुधा रस चाहे , प्रिय आओ इस वृन्दावन /
Tuesday, March 31, 2015
व्यर्थ रहे करवटें बदलते नींद ?
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