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Tuesday, March 31, 2015

व्यर्थ रहे करवटें बदलते नींद ?

ओव्यर्थ रहे करवटें बदलते नींद न आयी रात भर ।
कसम तुम्हारी रही सताती फिर तन्हाई रात भर ।
अपलक रहीं देखती आँखें दरवाजे से दूर कहीं
आसपासहीकहींसिसकतीदुल्हनलजाईरातभर।
ऐसीआदत यादों से ही लिपटलिपटकर सोनेकी
नींदों की ही उम्मीदों में सेज सजायी रात भर ।
मिले कहाँ कब दूर हुए हम सपने कैसे चूर हुए
सूर बने अनमने रहे रचते कविताई रात भर  ।
फिरमीठीझिडकियांसुनाकरबंदखिड़कियाँ खटकाती
दीवारों से लिपट लिपट रोयी परछाईं रात भर ।
रंग भंग कर जाए पागल अपनी मस्ती में छूकर
अंग अंग से जंग करे भरती अंगड़ाई रात भर ।
कहते लोग अकेले रहते रहते कहाँ अकेले हम
तेरी यादें आ आ कर करतीं पहुनाई रात भर ।
मन के वृन्दावन में नयनों के सूने यमुना तट पर
रस नागर ने गागर भर बाँसुरी बजाई रात भर ।

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